भाषा के सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

भाषा एक संप्रेषण का साधन है। हम भाषा रहित समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमें अपने विचार दूसरों के साथ साझा करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। शिक्षा के क्षेत्र में भाषा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। कक्षा के अंदर भाषा के माध्यम से ही अध्ययन की प्रक्रिया संपन्न होती है।

भाषा के विकास के विभिन्न सिद्धांत (bhasha ke sidhant) हैं जिन्हें विभिन्न समर्थकों द्वारा प्रचारित किया गया है। यह खंड कुछ मुख्य सिद्धांतों के बारे में संक्षेप में बताएगा । इनमें व्यवहार सिद्धांत, प्रकृतिवादी भाषाई सिद्धांत आदि सिद्धांत शामिल हैं।

बी.एफ. स्किनर-क्रिया प्रसूत सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

बी.एफ. स्किनर एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने पावलोव के अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धांत (Classical Conditioning Theory of learning) से प्रेरित होकर उसमें कुछ परिवर्तन लाकर क्रिया प्रसूत सिद्धांत (Operant Conditioning Theory) का प्रतिपादन किया। व्यवहारवादी भाषा अधिगम सिद्धांत (Behaviourist Language Learning Theory) को उन्होंने अपनी पुस्तक वर्बल बिहेवियर (Verbal Behaviour) (1957) में लिखा। बी.एफ. स्किनर के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन तथा व्यवहार को सिखने के लिए एक प्रक्रिया होती है जिसे क्रिया प्रसूत (Operant Conditioning) कहते हैं। उनके द्वारा कहे गए शब्द समझना मुश्किल है किन्तु उन्होंने उदहारण देकर अपने शब्दों को आसानी से एक प्रक्रिया के द्वारा समझा दिया।

व्यवहारवादियों का यह मानना है कि भाषा सीखना कुछ और सीखने से अलग नहीं है। यह उत्तेजना, प्रतिक्रिया, सुदृढ़ीकरण, पुनरावृत्ति प्रक्रिया द्वारा गठित एक आदत बन जाता है। व्यवहारवादियों का यह मानना है कि बच्चा अपने परिवार, आस-पड़ोस और अपनी प्रकृति के संपर्क में आकर भाषा सीखता है। बच्चा अपने आस-पास रहने वालों की नक़ल करके तथा शब्दों को दोहरा कर भाषा सीखता है।

चौमस्की का भाषा अर्जित करने का सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

नोएम चौमस्की व्यवहारवाद के कट्टर विरोधी थे। चौमस्की को आधुनिक भाषाविज्ञान का जनक (Father of Modern Linguistics) कहा जाता है। व्यवहारवाद कहता है कि भाषा की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है अर्थात बच्चा अपने परिवार, आस-पड़ोस और अपनी प्रकृति से बोलना सीखता है। चौमस्की का कहना है कि भाषा सीखने के लिए बच्चे में जन्म के पहले से ही उसके अंदर भाषा सीखने की कला मौजूद होती है अन्यथा अगर भाषा प्रकृति से या संगति से ही सीखनी होती तो जानवर भी बोल रहे होते। बच्चे भाषा के लिए सहज क्षमता के साथ पैदा होते हैं। चौमस्की के अनुसार भाषा हमारे जीनों द्वारा निर्धारित कार्यकर्मों का उत्पाद है।

मानव के अंदर पहले से ही कोई ना कोई क्षमताएं विद्यमान होती हैं जो बच्चे को भाषा सीखने में सहायक होती है तथा प्रेरित करती है। चौमस्की ने भाषा को बुद्धि बताया है तथा ये भी कहा है कि प्रत्येक मनुष्य का बच्चा भाषा का सॉफ्टवेयर लेकर पैदा होता है।

बाउ-वाउ सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

बाउ-वाउ सिद्धांत (Bow-wow Theory) का प्रतिपादन सर्वप्रथम जीन जैक्विस रूसो ने किया तथा रूसो के साथ साथ जॉन गौटफ्राइड का नाम भी बाउ-वाउ सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ है। इस सिद्धांत का निर्माण प्राकृतिक आवाजों एवं जानवरों द्वारा उत्पन्न आवाजों की नकल करके किया गया तथा इन आवाजों के द्वारा भाषा के विकास के सिद्धांत को आगे बढाया गया। इस सिद्धांत में जानवरों का रोना, चिल्लाना, खुशी जताना, दर्द में चिलाना, चहचहाना, या कुछ प्राकृतिक आवाजें जैसे टहनियों का टूटना, दरवाजे के खटखटाने की आवाज आदि आवाजों को शामिल किया गया है। कुछ जानवरों के नाम तो उनकी आवाज सुनने के बाद उनकी आवाज के आधार पर ही रखे गए हैं।

पूह-पूह सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

पूह-पूह सिद्धांत (Puh-puh Theory) का प्रतिपादन मुलर महोदय ने किया। इस सिद्धांत में मुलर ने बताया कि जो भाषा है वो आनन्द, आश्चर्य, भावनाएं, दर्द आदि स्खलन से उत्पन्न होती है। इस प्रकार की आवाजें ही पूह-पूह सिद्धांत का आधार है।

डिंग-डोंग सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

डिंग-डोंग सिद्धांत (Ding-dong Theory) का प्रतिपादन मुलर महोदय ने किया। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी प्रकार की आवाज जो अनायास ही निकल जाती है जैसे बच्चे को हम मम्मा कहने को बोलते हैं तो बच्चा हमारी नकल करके मा मा मा बोलता है अर्थात बच्चा थोड़ा-थोड़ा बोलने की कोशिश करता है।

यो-ही-हो सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

जब हम कोई शारीरिक कार्य करते हैं तब हमारे अंदर से जो आवाज आती है, या वे आवाजें जिनसे एक इंसान खुद को प्रेरित करने की कोशिश करता है। इस प्रकार की आवाजें ज्यादातर तब निकलती हैं जब मनुष्य कोई शारीरिक कार्य कर रहा हो जिसमें उसे अधिक ताकत की आवश्यकता होती है।

टा-टा सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

टा-टा सिद्धांत (Ta-ta Theory) का प्रतिपादन सर रिचर्ड पेजेट महोदय ने किया। उन्होंने डार्विन से प्रेरित होकर इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यह सिद्धांत हमारी जीभ के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली आवाज़ों से सम्बंधित है। हमारी जीभ से हम तरह-तरह की आवाजें उत्पन्न करते हैं।

ला-ला सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

ला-ला सिद्धांत (La-la Theory) का प्रतिपादन कैट्टी ने किया और इस सिद्धांत को ला-ला नाम ओटो जेस्पर्सन ने दिया। इस सिद्धांत के अंतर्गत वे आवाजें आती हैं जिस के द्वारा हम किसी को अपना प्यार दिखाते हैं या कविताएं बनाते हैं।

बैबल-लक सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

इस सिद्धांत के अनुसार जब इंसान काम करते-करते थक जाता है तो वह मन ही मन कुछ बड़बड़ाने लगता है या खुद से बातें करने लग जाता है। इस प्रकार की आदत से निकली आवाजों को निजी भाषा भी समझा जाता है। इस प्रकार की आवाजें या भाषा बैबल-लक सिद्धांत के अंतर्गत आती हैं।

डिवाइन-गिफ्ट सिद्धांत (bhasha ke sidhant)

भारतीय दर्शन का मानना है कि भाषा भगवान का तोहफा है। भागवत गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि जितनी भी भाषा है सबकी उत्पत्ति ओम से हुई है। ओम अंग्रेजी के (a+o+m) से बना है, जो कि हर प्रकार की ध्वनि का उत्पत्ति केंद्र है।

उपसंहार

विभिन्न सिद्धांतों के अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि भाषा के अंतर्गत वे सब आवाजें आती हैं जिन्हें हम अपने आस-पास के वातावरण में या प्रकृति में सुनते हैं। कुछ ऐसी आवाजें जो अचानक ही हमारे मुख से निकल जाती हैं। भाषा के विकास में इस प्रकार की आवाजों की बहुत बड़ी भूमिका है। जैसे कि बाउ-वाउ सिद्धांत (Bow-wow Theory) में बताया गया है कि कई जानवरों के नाम उनकी आवाज के हिसाब से रखे गए हैं, जैसे – कोयल (Cuckoo) की आवाज कूहू कूहू , मुर्गे (Cock) की आवाज कूकडू कू, कौवे (crow) की आवाज काँव काँव।

 

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