पाठ्यक्रम कई प्रकार के होते हैं। पाठ्यक्रम के प्रकार (pathyakram ke prakar) उनके संगठनों पर निर्भर करते हैं। संघठन का तात्पर्य दो या दो से अधिक लोगों के समूह से है जो किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं। किसी बड़े कार्य को कोई एक अकेला व्यक्ति संपन्न नहीं कर सकता है अतः उसे एक संगठन की आवश्यकता पड़ती है जिस से उसका कोई भी बड़ा कार्य आसानी से संपन्न हो जाता है।
उसी प्रकार हम पढ़ चुके हैं कि पाठ्यक्रम का क्षेत्र बहुत व्यापक है और विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम को बनाने के लिए संघटनों की आवश्यकता पड़ती है अतः पाठ्यक्रमों के पीछे संघटनों की बहुत बड़ी भूमिका है। संघटन का तात्पर्य हुआ किसी समूह के द्वारा बनाये गए उद्देश्य तथा उनकी प्राप्ति के लिए बनाया गया पाठ्यक्रम। जिस प्रकार हर मनुष्य की अलग-अलग सोच होती है उसी प्रकार हर पाठ्यक्रम को बनाने वाले संगठनों के अलग-अलग उद्देश्य होते हैं जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का निर्माण होता है।
1. विषय केंद्रित या शिक्षक केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
जैसा कि नाम से ही ज्ञांत हो रहा है कि इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषय पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम की शुरुआत प्राचीन ग्रीक तथा रोम विद्यालयों में हुई थी। विषय-केंद्रित पाठ्यक्रम में पाठ्य-पुस्तक में अधिक ध्यान दिया जाता है तथा पाठ्यक्रम का निर्माण विषय को केंद्र मान कर किया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बच्चे की रूचि की कोई महत्ता नहीं होती। इस पाठ्यक्रम के अंतर्गत शिक्षक पाठ्यक्रम में दी गयी जानकारी ही बच्चों को मुहैया कराता है तथा बच्चे उसी ज्ञान को ग्रहण करते हैं।
इस प्रकार के पाठ्यक्रम को हम अपरम्परागत पाठ्यक्रम भी कह सकते हैं क्योंकि इस प्रकार के पाठ्यक्रम के अंतर्गत बालक की रूचि, क्षमता आदि का ध्यान नहीं दिया जाता। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक को गौड़ तथा विषयों को प्रमुख स्थान देकर विभिन्न विषयों की पुस्तकों का निर्माण किया जाता है। ज्ञान का सम्बन्ध पूर्ण रूप से पुस्तकों पर केंद्रित होने के कारण इस प्रकार के पाठ्यक्रम को पुस्तक-केंद्रित पाठ्यक्रम भी कहा जाता है।
2. बाल केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषयों को गौड़ तथा बालक को प्रमुख स्थान पर रखा जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का प्रयोग सर्वप्रथम जॉन डीवी के लेबोरेट्री विद्यालय में हुआ तथा यहाँ से इस प्रकार के पाठ्यक्रम का प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक को केंद्र बिंदु माना जाता है तथा पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की रूचि, आवश्यकता, अवस्था तथा उसकी क्षमताओं के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालक का सर्वांगीड़ विकास करना होता है।
3. अनुभव-केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
अनुभव-केंद्रित पाठ्यक्रम के नाम से ही पता चलता है कि इस प्रकार के पाठ्यक्रम का सम्बन्ध बालक के अनुभवों से है। अतः इस प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्माण बालक के अनुभव पर आधारित होता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में पाठ्य-पुस्तकों से अधिक बालकों के अनुभव पर ध्यान दिया जाता है। अतः पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों के अनुभवों के आधार पर किया जाता है। अतः इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालकों के अनुभवों को पुस्तकों की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है। यह पाठ्यक्रम करके सीखने के सिद्धांत पर कार्य करता है।
4. क्रिया-केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
इस प्रकार के पाठ्यक्रम का सुझाव सर्वप्रथम अमेरिकी शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी ने दिया था। अतः क्रिया केंद्रित पाठ्यक्रम का प्रणेता जॉन डीवी को माना जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्माण क्रियाओं पर आधारित होता है। क्रिया केंद्रित पाठ्यक्रम में बालकों से विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ अर्थात कार्य कलाप कराये जाते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ समाज के हित एवं मांग तथा बालक की रूचि तथा योग्यता के अनुसार दिए जाते हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम का निर्माण शिक्षकों एवं बालकों के मिले जुले सहयोग से होता है।
जॉन डीवी का मानना है कि बालकों से इस प्रकार के कार्य कराने चाहिए जो की आगे जाकर समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो। किलपैट्रिक ने इस प्रकार के पाठ्यक्रम में शिक्षण के लिए परियोजना विधि दी और माहत्मा गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा पर बल दिया।
अतः इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालकों के लिए ऐसे कार्यों का आयोजन किया जाता है जिसकी समाज को आवश्यकता हो तथा जिसका समाज में महत्व हो।
5. उद्देश्य-केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
बी. एस. ब्लूम ने मूल्यांकन के लिए त्रिध्रुवीय प्रक्रिया का सुझाव दिया जिसमें
शैक्षिक उद्देश्य
सीखने के दौरान प्राप्त अनुभव
व्यवहार परिवर्तन
उद्देश्य केंद्रित पाठ्यक्रम के निर्माण का आधार विभिन्न उद्देश्य होते हैं तथा वर्तमान में इसी प्रकार के पाठ्यक्रम का प्रयोग सबसे अधिक होता
6. व्यवसाय-केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
व्यवसाय-केंद्रित पाठ्यक्रम के नाम से ही पता चलता है कि वह पाठ्यक्रम जिसका केंद्र बिंदु व्यवसाय होता है अर्थात जिस के अंतर्गत बालक के व्यवसाय के आधार को देखकर पाठ्यक्रम बनाया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बच्चे को भावी एवं उज्जवल भविष्य के लिए तैयार किया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम के अंतर्गत बालक को भविष्य में आय प्राप्त करने के श्रोतों के लिए तैयार किया जाता है।
इस प्रकार के पाठ्यक्रम के जरिये बालक के अंदर ऐसे कौशलों का विकास किया जाता है जिन के द्वारा भविष्य में बच्चा आत्मनिर्भर बन सके तथा अपने जीवन व्यापन के लिए जीविकोपार्जन प्राप्त कर सके। आजकल इस प्रकार के पाठ्यक्रम की सबसे अधिक मांग है जिसके द्वारा पहले की तुलना में रोजगार प्राप्त करना आसान हो गया है।
7. शिल्प-कला-केंद्रित पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
शिल्प-कला को एक बहुत पुरानी कला के रूप में माना जाता है तथा गांधी जी ने अपने आधारभूत शिक्षा के पाठ्यक्रम में शिल्पकला में अधिक बल दिया है अतः उनके द्वारा बनाये गए आधारभूत शिक्षा के पाठ्यक्रम का केंद्र बिंदु शिल्पकला है। शिल्पकला के अंतर्गत विद्यालय में बालकों को कृषि, लकड़ी का कार्य, चमड़े का कार्य आदि शिल्प-कलाओं का ज्ञान दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम के अंतर्गत शिल्पकला की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान की जाती है। शिल्पकला की शिक्षा के साथ-साथ अन्य विषयों में भी ध्यान दिया जाता है, जैसे- मात्रभाषा, चित्रकला, गणित, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, तथा सामान्य ज्ञान आदि।
8. सुसम्बद्ध-पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
इस प्रकार के पाठ्यक्रम में ज्ञान को एक इकाई माना जाता है तथा सभी विषयों को अलग-अलग न पढ़ाकर एक दूसरे से संबंधित करके पढ़ाये जाने पर जोर दिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में दो विभिन्न विषयों में एक समानता रखने वाले विषय को अलग-अलग न पढ़ाकर एक ही समय में दोनों विषयों को एक साथ पढ़ाया जाता है जिससे इसका ज्ञान लम्बे समय तक रहता है तथा समय की भी बचत होती है।
9. कोर-पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
इस प्रकार के पाठ्यक्रम में कुछ विषय अनिवार्य होते हैं तथा कुछ विषय ऐच्छिक। इस प्रकार का पाठ्यक्रम अमेरिका की देन है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में कुछ विषय अनिवार्य होते हैं जिनका अध्ययन करना हर बालक के लिए आवश्यक है तथा कुछ विषय ऐच्छिक होते हैं जिनमें से बच्चे अपने पसंद के विषय का चयन करते हैं।
इस प्रकार के पाठ्यक्रम के निर्माण का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति व समाज दोनों का विकास करना है।
10. एकीकृत-पाठ्यक्रम (pathyakram ke prakar)
एकीकृत पाठ्यक्रम के अंतर्गत ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है जिस में एक समानता रखने वाले विषयों को एक साथ पढ़ाया जाता है।
उदाहरण के लिए
सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, राजनीती शास्त्र, नागरिक शास्त्र आदि।
विज्ञान के अंतर्गत भौतिक विज्ञानं, रासायनिक विज्ञान, गणित एवं जीव विज्ञान आदि।
उपसंहार
समय के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी कई बदलाव आये। शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के कारण हमारे पाठ्यक्रम में भी कई परिवर्तन आये। कई संघठन बने तथा उन संगठनों ने अपने समाज और अपनी सोच के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण किया। अधिकतर पाठ्यक्रमों के निर्माण का मूल आधार हमारा समाज तथा समाज की आवश्यकताओं को देखकर किया गया। इसके अलावा आर्थिक, वैज्ञानिक, राजनितिक आदि आधारों पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया गया। वर्तमान में एक साथ कई पाठ्यक्रम प्रयोग में लाये जाते हैं। वर्तमान समय में रोजगार की अधिक आवश्यकता को देखते हुए कई व्यवसाय से सम्बंधित पाठ्यक्रमों का निर्माण हुआ है जिसका अनुसरण करके बालक शिक्षा के पश्चात शीघ्र रोजगार प्राप्त कर लेता है।
यह भी जानें-
अनौपचारिक शिक्षा (Non-Formal Education)
शैक्षिक मापन (Educational Measurement)
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grant Commission)
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