बौद्धिक शिक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व सर्वप्रथम बौद्ध मन्त्र का जाप कराया जाता था तत्पश्चात बालक का बौद्धिक शिक्षा में प्रवेश होता था। यहाँ हम भी बौद्ध मन्त्र के बाद ही बौद्धिक शिक्षा प्रणाली का अध्यन्न करेंगे –
बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि
मैं बुद्ध की शरण लेता हूं, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूं
भगवान बुद्ध ने चार आर्य सत्य की खोज की-
1 दुखम – संसार में दुःख है।
2 दुख समुदाया – दुःख का कारण है।
3 दुख निरोध – दुःख का निवारण संभव है।
4 दुख निरोध मार्ग – दुःख निवारण हेतु अष्टांगिक मार्ग का पालन करना।
हमारे देश भारत में बौद्ध धर्म का आगमन लगभग 500 ईशा पूर्व हुआ माना जाता है।
कहा जाता है कि अति इति का कारण बनता है। ऋग्वैदिक काल के बाद उत्तर वैदिक काल में जब समाज में जाति व रिती रिवाज का अधिक प्रसार होने लगा, तो समाज के कुछ लोग इसके विरोध में भी उठे। इस प्रकार की जाति तथा रिती रिवाज का विरोध करने वाले सर्वप्रथम चार्वाक व आजीविक थे। साथ ना मिलने के कारण इनकी आवाज को दबा दिया गया तथा इसी के साथ विरोध भी खत्म हो गया।
परिचय
बौद्ध धर्म की स्थापना का श्रेय महात्मा बुद्ध को जाता है। महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी नामक वन में हुआ था जो वर्तमान में नेपाल में है। महात्मा बुद्ध राजा शुद्धोधन के पुत्र थे तथा उनकी माता का नाम मायादेवी था। जन्म के 1 सप्ताह में ही उनकी माता का देहांत हो गया जिसके बाद उनका लालन पोषण उनकी मौसी गौतमी द्वारा हुआ। गौतम बुद्ध को जन्म से सिद्धार्थ नाम से जाना जाता था। असित ऋषि द्वारा सिद्धार्थ के 32 महापुरुष लक्षणों को देखकर उनके बुद्धत्व की भविष्यवाणी की गई थी।

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के प्रव्राजित होने की भविष्यवाणी के भय से तीन महलों का निर्माण किया जिसमें केवल आनंद से संबंधित वस्तुएं व लोग ही होते थे। राजा शुद्धोधन द्वारा बनाए गए 3 महलों में ग्रैष्मिक, वार्षिक एवं हैमंतिक महल थे। जब सिद्धार्थ 29 वर्ष के हुए तब आधी रात को सारी मोह-माया से मुक्त हो कुटुंब जीवन का त्याग कर सारे सुख-समृद्धि को छोड़कर चले गए।
सिद्धार्थ ने बौद्ध धर्म का प्रतिपादन किया जिसके बाद सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध के नाम से जाना जाने लगा। 500 ईसा पूर्व से 1200 ईसवी के समय को बौद्धिक काल के नाम से जाना जाता है।
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया। महात्मा बुद्ध द्वारा दिए गए उनके पहले उपदेश को धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से भी जाना जाता है। उस समय के वहां के राजा एवं सम्राटों ने महात्मा बुद्ध की सहायता की तथा बहुत जल्द संपूर्ण देश के विभिन्न भागों में कई मठ व विहार के निर्माण हो गए। शुरू में इन मठ व विहारों में महात्मा बुद्ध के द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती थी किंतु धीरे-धीरे यहां के भिक्षुओं ने शिक्षा की एक नई प्रणाली प्रारंभ की जिसको हम बौद्धिक शिक्षा प्रणाली के नाम से जानते हैं।
हर धर्म के समान बौद्धिक धर्म ने भी अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्न किए। बौद्धिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जनसाधारण की भाषा का प्रयोग किया गया।
बौद्धिक शिक्षा प्रणाली की मुख्य विशेषताएं
बौद्धिक शिक्षा प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्न है
वित्त एवं प्रशासन
वित्त एवं प्रशासन के लिए तीन चीजों का उल्लेख होना आवश्यक है
- शिक्षा पर बौद्धिक संघों का नियंत्रण- शिक्षा पर किसी एक का नियंत्रण ना होकर समस्त संघ का नियंत्रण होता था।
- बौद्धिक शिक्षा को राजाओं एवं सम्राटों द्वारा संरक्षण प्राप्त- राजा एवं सम्राटों द्वारा मठ एवं विहार बनाने के लिए धन दिया जाता था।
- निशुल्क प्राथमिक शिक्षा- बौद्धिक शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा निशुल्क थी।
शिक्षा की संरचना एवं संगठन
बौद्ध कालीन शिक्षा को तीन स्तरों में व्यवस्थित किया गया था
प्राथमिक शिक्षा –
- बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मठों व विहारों में थी।
- बच्चे के 6 वर्ष होने मैं प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश ले सकता था। बालक के 12 वर्ष का होने पर उसकी प्राथमिक शिक्षा संपन्न हो जाती थी।
- प्राथमिक शिक्षा पूर्णता धर्म पर आधारित थी।
- बौद्धिक शिक्षा में किसी भी धर्म का बच्चा प्रवेश ले सकता था। केवल चांडाल बौद्धिक शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सकते थे।
- बौद्ध मठों में प्रवेश से पूर्व बच्चों के माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर बच्चों का प्रव्रज्या (पब्बजा) संस्कार होता था।
- प्रव्रज्या संस्कार में मठ का मुख्य भिक्षु बालक से तीन बार बुद्ध मंत्र कहलवाता था।
- प्रव्रज्या संस्कार के अंतर्गत बालक को 10 आदेशों का पालन करना होता था
- जीव हत्या ना करना
- चोरी ना करना
- अशुद्धता ना करना
- असत्य ना बोलना
- मादक पदार्थों का सेवन ना करना
- वर्जित समय पर भोजन न करना
- नृत्य एवं संगीत से दूर रहना
- श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग ना करना
- ऊंचे बिस्तरों पर ना सोना
- सोना चांदी का दान ना करना
- मठ में प्रवेश के पश्चात बालक या छात्र को श्रामणेर (सामनेर) कहा जाता था।
उच्च शिक्षा
- प्राथमिक शिक्षा संपन्न होने के पश्चात उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षाएं दी जाती थी। उच्च शिक्षा में केवल वह बच्चे प्रवेश ले पाते थे जो प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हो।
- उच्च शिक्षा प्रारंभ होने की आयु सामान्यतः 12 वर्ष थी तथा जब बच्चा 20 या 25 वर्ष का हो जाता तो उच्च शिक्षा संपन्न हो जाती।
भिक्षु शिक्षा
- उच्च शिक्षा संपन्न होने के बाद जो विद्यार्थी बौद्ध धर्म को अपनाना चाहता था उससे भिक्षु शिक्षा संपन्न करनी होती थी।
- भिक्षु शिक्षा मैं प्रवेश लेने से पूर्व बालक को उप संपदा संस्कार कराना पड़ता था। बौद्ध संघ में प्रवेश को उप संपदा कहा जाता था।
- यह शिक्षा गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वालों के लिए नहीं थी।
- उप संपदा संस्कार के बाद भिक्षुओं को 8 नियमों का पालन करना पड़ता था।
- साधारण वस्त्र पहनना
- वृक्षों के नीचे वास करना
- भिक्षा मांग कर भोजन ग्रहण करना
- चोरी न करना
- जीव हत्या ना करना
- अलौकिक शक्तियों का दावा न करना
- स्त्री से किसी प्रकार का संबंध स्थापित ना करना
- औषधि के रूप में गोमूत्र का सेवन करना।
- भिक्षु शिक्षा की समय अवधि 8 वर्ष की होती है।
- भिक्षु शिक्षा संपन्न होने पर छात्र पूर्ण रूप से सन्यासी अर्थात मौंक बन जाता था।
शिक्षा का उद्देश्य
बौद्धिक शिक्षा के उद्देश्य लगभग वैदिक शिक्षा के समान थे पर उनकी प्रकृति में अंतर था। बौद्धिक शिक्षा के उद्देश्य निम्न है
- मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयास करना
- शारीरिक विकास
- ज्ञान का विकास
- सामाजिक व्यवहार का विकास
- बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार
- व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
- चारित्रिक एवं नैतिक विकास
- छात्रों को भावी जीवन के लिए तैयार करना
बौद्धिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति था जिसके लिए महात्मा गौतम बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग का अनुकरण करने को कहा।
अष्टांगिक मार्ग
सांसारिक दुखों से मुक्ति हेतु बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग पर चलने की बात कही है।
- सम्यक दृष्टि- वस्तुओं के वास्तविक रूप का ध्यान करना
- सम्यक संकल्प- आसक्ति द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना।
- सम्यक वाक- अब प्रिय वचनों का परित्याग
- सम्यक क्रमांत- दान दया सत्य अहिंसा आदि सत्कर्म का अनुसरण करना।
- सम्यक अजीव- सदाचार के नियमों के अनुकूल जीवन व्यतीत करना।
- सम्यक व्यायाम- विवेकपूर्ण प्रयत्न करना
- सम्यक् स्मृति- सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का परित्याग करना।
- सम्यक समाधि- चित्त की एकाग्रता
इनमें 1 से 3 को प्रज्ञा, 4 से 6 को शील और 7 से 8 को समाधि।
बौद्धिक शिक्षा का पाठ्यक्रम
बौद्धिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को तीन भागों में बांटा गया-
प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम
प्राथमिक शिक्षा की अवधि 6 वर्ष की थी। इन 6 वर्षों के प्रथम 6 माह बच्चों को सिद्धिरस्तु नाम की बाल पोथी पढ़ाई जाती थी जिसकी सहायता से बच्चों को पाली भाषा के 49 वर्ण सिखाए जाते थे। प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत बच्चों को 6 माह के पश्चात पांच विभिन्न विज्ञान अर्थात विद्याएं पढ़ाई जाती थीं।
शब्द विद्या (आकृति विज्ञान), शिल्प कला विद्या (चेन्नई), चिकित्सा विद्या (आयुर्वेद) तर्क विद्या एवं अध्यात्म विद्या (आध्यात्मिकता)। इसके अलावा बच्चों को बौद्ध धर्म के सामान्य सिद्धांत भी बताये जाते थे।
उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम
उच्च शिक्षा की समय अवधि लगभग 12 वर्ष की होती थी। इन 12 वर्षों के अंतराल में बच्चों को व्याकरण धर्म ज्योतिष आयुर्वेद एवं दर्शन का सामान्य ज्ञान दिया जाता था।
व्याकरण एवं साहित्य के साथ पाली प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का ज्ञान भी दिया जाता था।
इसके अलावा खगोल शास्त्र ब्रह्मांड विज्ञान न्याय शास्त्र राजनीति विज्ञान अर्थशास्त्र कला कौशल व्यवसाय
भिक्षु शिक्षा का पाठ्यक्रम
भिक्षु शिक्षा की अवधि 8 वर्ष की होती थी। इसके अंतर्गत केवल बौद्ध धर्म एवं दर्शन का ज्ञान दिया जाता था।
भिक्षु शिक्षा में पाठ्यक्रम को दो भागों में बांटा गया।
धार्मिक
- इसके अंतर्गत बौद्ध धर्म का ज्ञान दिया जाता था जिसके लिए तीन बौद्ध साहित्य पढ़ाए जाते थे जिन को विस्तृत रूप में त्रिपिटक कहते थे (सुत्त पिटक, विनय पिटक एवं अभिधम पिटक)।
- इस पाठ्यक्रम का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार एवं मोक्ष प्राप्ति था।
लौकिक पाठ्यक्रम
- इस पाठ्यक्रम के द्वारा बालक को सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के लिए तैयार किया जाता है ।
- इसके अंतर्गत गणित, कला, कौशल एवं व्यवसायिक शिक्षा क्या ज्ञान दिया जाता है।
शिक्षण विधि
विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों के मानसिक स्तर एवं शारीरिक विकास मैं भिन्नताएं होने के कारण इनके लिए विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग होना आवश्यक है। बौद्ध धर्म के अनुसार किसी भी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने या सीखने के तीन मुख्य साधन हैं- शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना। अतः विभिन्न आयु वर्ग के बालक को के शरीर मस्तिष्क एवं चेतना में विभिनता में पाई जाती है जिस कारण विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियां प्रयोग की जाती है।
प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान विधि, अनुकृति विधि, शास्त्रार्थ विधि, प्रदर्शन एवं प्रायोगिक विधि, स्वाध्याय विधि, भ्रमण आदि विधियों का प्रयोग होता था।
शिक्षा के मुख्य केंद्र
बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने भारत में एक नई शिक्षा प्रणाली का प्रारंभ किया जिसे बौद्धिक शिक्षा प्रणाली के नाम से जाना जाता है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए देशभर में कई मठ एवं विहारों का निर्माण हुआ जहां बौद्धिक शिक्षा प्रदान की गई। शिक्षा के मुख्य केंद्र निम्न थे
तक्षशिला– वर्तमान में पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में स्थित है।
नालंदा– वर्तमान में यह बिहार के पटना शहर में स्थित है।
विक्रमशिला– वर्तमान में यह बिहार के मगध शहर के निकट गंगा तट पर स्थित है।
वल्लभी– वर्तमान में यह गुजरात के काठियावाड़ शहर में स्थित है।
इसके अलावा मिथिला, उदंतपुरी, सारनाथ, नदिया, जगदला, कांची आदि बौद्धिक शिक्षा के मुख्य केंद्र हैं।
उप संहार
बौद्धिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति था। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये जिसमें उन्होंने बताया कि सांसारिक मोह माया से दूर हट के अर्थात सांसारिक मोह माया का त्याग करके अष्टांगिक मार्ग का पालन करके ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने अष्टांगिक मार्गों के बारे में बताया। गौतम बुध का मानना था कि अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करके मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए देशभर में कई मठ एवं विहार ओं का निर्माण किया तथा इन मट्ठाउ एवं विचारों मे बौद्धिक शिक्षा दी गई।